कोरोना एक महामारी

कोरोना एक महामारी
जिंदा रहने के लिए फासला जरूरी है,
खुदा जाने अब क्या क्या जरूरी है

महफिलों में तो बहुत रह चुके हैं ,
अब बस घर मे रहना जरूरी है

वबा निकली है अपने पूरे बंदोबस्त के साथ,
एक साथ ना बैठो अगर जीना जरूरी है

कोरोना (Covid-19) यह बिमारी एक महामारी का रूप ले ली।  किन्तु इसका अस्तित्व आज भी सवालों में घिरा है कि यह बिमारी है भी या नही? क्योंकि इस बिमारी ने कई लोगों की ज़िन्दगी बदल दी। कई लोग मीलों का पैदल सफर कर के अपनों के पास जा रहे थे, तो कहीं भूखे घरों में कैद खुद को जिंदा रखने की जद्दु जहद में लगे थे।  किसी ने सोचा न था के खुली हवा में सांस लेना व्बालें जिंदगी बन जायेगा।

अचानक लागू होने वाले लॉक-डाउन का दुष्ट प्रभाव सबसे ज्यादा गरीब तबके / बस्तियों में रहने वाले नागरिकों पर पड़ा जिनका जीवन चक्र रोज कमाना रोज खाना था। उनकी तो जिंदिगयां पहले ही कई संघर्ष और आभाव से भरी पड़ी थी।  ऊपर से यह महामारी जिसके अचानक लॉक-डाउन ने उनका जीवन चक्र जाम कर दिया तो भला कैसे यह बिमारी उनके लिए स्वीकृत हो सकती थी।

लॉक – डाउन के समय बस्तियों में रहने वाले नागरिकों का बद से बत्तर हाल हो गया।  जिनका घर 10×10 का है वहाँ 6 से 7 लोग घरों में कैद, कैसे शारिरिक दूरी का पालन करते? पानी, पैसों के आभाव में भला कैसे कोरोना के एहतियात में बुनियादी सुरक्षा मापों का पालन करते? अन्न की तलाश में लोग बाहर जाते तो पुलिस मारती। अभिभावकों के मानसिक तनाव का सबसे बड़ा कारण अपने बच्चों को फाके में रहता देख उनके लिए कुछ ना कर पाना था। घरेलू हिंसा, बालविवाह, नशा, शोषण सारी बुराइयाँ बस्ती में उरूज पर थी।
लॉक -डाउन के पहले चरण ने ही लोगों की कमर तोड़ दी। कई लोगों की जान दवाइयां ना मिलने से हुई, तो कहीं माँ नवजात को रास्ते मे जन्म देते समय मौत के आगोश में आ गयी क्योंकि अस्पतालों ने उन्हें कोविड टेस्ट के बिना लेने से इंकार किया।   क्या लॉक-डाउन के समय सिर्फ कोरोना ही बिमारी थी? अन्य बीमारियों का इलाज क्यों नही हो रहा था?
जहाँ न्यूज़ चैनल्स का काम लोगों तक राहत और सही ख़बर पहुचाना था वहाँ न्यूज़ चैनल्स लोगों में फूंट  डालने का काम कर रहे थे।  निजामुद्दीन के तब्लीगी जमात पर जो घटया प्रोपोगेंडा चला कर न्यूज़ चैनल्स नागरिकों में शारीरिक दूरी की जगह सामाजिक एवं मानसिक दूरी पैदा करने का काम कर रहे थे।  माहमारी के समय सरकार की प्राथमिकता मंदिर निर्माण, बिहार चुनाव, कृषी बिल और विरोधी पार्टी पर सारी नकामयों के लिए जिम्मेदार ठहराना था।

जबकि सरकार राहत के तौर पर केवल 5 किलो अनाज और 500रू उन लोगों को दे रही थी जिनके पास राशन कार्ड, जनधन का खाता था, वहीं कई लोग ज़मीनी स्तर पर व्यक्तिगत और संस्थागत रूप से लोगों तक राहत पहुँचाने का काम कर रहे थे।

इस महामारी ने मौत से ज्यादा इंसानियत को परवान चढ़ाया है क्योंकि नफ़रत तो हमारे दिलों में पहले से भरी थी पर रहमदिली का जज़्बा तो लॉक-डाउन में ही नजर आया है।

देखा जो मंजर-ए-खौफ़ दूर से,
डर के ही सही पर कुछ दिन सब इंसान हो गए……..
चंद दिन भी ये आलम ना टिका,
कुछ लोगों में इंसानियत का…….
देखो वो फिर से हिन्दू-मुसलमान हो गए…..

~ Mehroz Khan

Advertisement

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s